Schchidananda Sinha inaugurates the 10th national conference of the Samajawadi Janaparishad in Varanasi

Schchidananda Sinha inaugurating the two day
 national conference of the Samajawadi Janaparishad (SJ)
at Varanasi , on June 11, 2013.photo: Amar Ujala
साथी सच्चिदानन्द सिन्हा का समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय सम्मेलन में उद्घाटन भाषण
समाजवादी जन परिषद का जन्म एक नई पहल की शुरूआत के साथ हुआ था। यह वह समय था जब समाज का विकास संबंधी वे मान्यताएँ जो पारंपरिक समाजवादी आंदोलन के पीछे थीं धराषायी होने लगी थीं। अपने को समाजवादी कहने वाली व्यवस्थाएँ श्ी, जो पुरानी मान्यताओं पर आधारित थीं, सांगठनिक और उससे श्ी बढ़कर उन मूल्यों के स्तर पर जिन को लेकर ये संगठन बने थे, विघटन के कगार पर थी। 1990 आते-आते सोवियत युनियन का विघटन हो गया और एक तथाकथित उन्मुक्त पूँजीवादी व्यवस्था ने इसका स्थान ले लिया। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के बैनर तले ही - जिसने 1956 से 1975 तक के काल में ‘‘बड़ी छलाँग’’ एवं ‘‘सांस्कृतिक क्रान्ति’’ जैसे साहसिक कदम उठाये थे - पूँजीवाद की धमाकेदार वापसी हुई और सश्ी मानवीय अवरोधों को रौंदते हुए अल्पकाल में ही चीन पूँजीवादी दूनियाँ की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया। संसोधनवादी समाजवाद ओर फेबियन समाजवाद के दो सबसे बड़े प्रयोग स्थल जहाँ क्रमषः सोषल डेमोक्रेटिक और ब्रिटिष लेबर पार्टी ने बीसवीं शताब्दी के कुछ साहसिक सुधारवादी प्रयोग किये थे, दिवंगत मार्गरेट थैचर और एंजेला मर्केल के आक्रामक पूँजीवादी पहल के सामने आत्म समर्पण की मुद्रा में हैं। सश्ी तरफ से यह आवाज आ रही थी कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। अगर हम अपने इर्द-गिर्द नजर डालें तो हमें तथा कथित उन्मुक्त व्यवस्था सर्वत्र नौकरषाही और व्यवस्थापों के जटिल तानेबाने से घिरा होता है। फर्क यही हुआ है कि व्यवस्था का जटिल तानाबाना जो पहले ब्युरोक्रेसी से संचालित होता था अब अधिक सक्षम बनानेवाले नेटोक्रेसी यानी कम्प्युटरों के संजाल से युक्त है। जिंसों के खरीद फरोख्त का धंधा तो पुराना ही है पर अब दुकानदार काउन्टर पर से गायब हो रहे हैं - घर बैठे सब कुछ ‘आॅन लाईन’ मुहैया होने लगा है। जैसे लोकतन्त्र में लोक की उपस्थिति औपचारिक और पांचसाला श्र है वैसे ही निजी उद्यम से कारोबार खड़ा करने वाला उद्यमी (इन्टरप्रेन्योर) श्ी गायब हो रहे हैं। बंधे बंधाए ढ़ाँचे के श्ीतर ही उसे शेयर बाजार या किसी दूसरे ढ़ाँचे के श्ीतर ही हाथ-पैर मारने की आजादी है। किसी नयी प्रविधि या वस्तु का निर्माण श्ी उसे इसी बने बनाये खाँचे के हिसाब से करना होता है। जेसे मकड़ी का सारा संसार जाल के श्ीतर ही ओर उसी के सहारे टिका होता है, आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था श्ी एक वृहत् एसेम्बली लाइन में तब्दील हो गयी है - जिसमें यातायात एवं संचार व्यवस्थाओं के सहारे वैष्विक पूँजीवादी प्रबंधन - खुदते खदानों, कटते वनों, विस्थापित जनों एवं बाधित जल स्रोतों से जीवन के निचोड़, प्राकृतिक परिवेष का उपहास करते, बदसूरत गगन चुंबी इमारतों, विष वमन करते वाहनों एवं फैक्ट्रियों के चिमनियों के संजाल का निर्माण करता है। इस व्यवस्था में समाहित वे असंख्य परिवार जो प्राकृतिक परिवेष से कट गये हैं, व्यवस्था द्वारा विज्ञापित और प्रायोजित वस्तुओं को अपनी अपनी हैसियत के हिसाब से बंधन में पड़े पिगरी के सूअरों की तरह गटकते रहते हैं।
माक्र्स ने जिस तकनीकी निर्यातवाद का प्रतिपादन यानी उत्पादन के साधन और उत्पादन संबंध से संसार के नियमन की बात की थी, वह एक अर्थ में फलीभूत हो रहा है और सबकुछ प्राद्योगिकी के प्रतिमानो के हिसाब से घटित होता दिखाई दे रहा है। लेकिन माक्र्स ने इसमें उत्पादकों यानी मजदूर वर्ग की जिस प्रतिरोधक शक्ति के विकास और इससे व्यवस्था के शोषक आवरण के ध्वस्त होने की कल्पना की थी वह साकार नहीं हो पायी। जो श्रमिक व्यवस्था से जुड़े हैं वे भावनात्मक रुप से इस का अंग हो गये हैं। वे न तो स्वयं व्यवस्था के संजाल से मुक्त होने का रुझान दिखाते हैं न इस ढ़ंाचे को परिधि पर पड़े दूसरे मानवों और प्रकृति के खिलाफ इसके अतिक्रमणों और आक्रमणो का कोई निषेध करते हैं। इस व्यवस्था द्वारा प्रकृति और व्यवस्था के हाषिये पर पड़े मानवों के शोषण के लाभुक बन इस व्यवस्था के समर्थक बन गये हैं। टाटा स्टील या वेदान्त के इस्पात एवं अल्युमिनियम उत्पादन के कारखानो में लगे श्रमिकों में उन मानवों की चिन्ता नहीं है जो लौह अयष्क या बौक्साइट खनन की प्रक्रिया में जो क्रमषः इस्पात और अल्यूमिनियम के उत्पादन के आधार हैं- विस्थापित होते हैं। कृषको एवं आदिवासियों का क्या होता है जिनके जीवन का आधार और प्राकृतिक परिवेष नष्ट हो रहे हैं यह कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की दृष्टि से ओझल हैं, या इसे नजरअन्दाज करना जरुरी बन गया है। क्योंकि इनके नष्ट होने का इन उद्योगों के विकास के साथ अन्योन्याश्रय संबंध है। अट्ठारहवीं से बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षो तक इस संबंध का एक अंतर्राष्ट्र्ीय आयाम था। उद्योगों का विकास पष्चिमी युरोप और उत्तरी अमेरिका में हो रहा था और प्राकृतिक संसाधनो और गुलाम और अर्ध गुलाम एवं धुआ मजदूरों का शोषण उस समय तक गुलाम बनाये गये एषिया, अफ्रिका और लातिनी अमेरिका में हो रहा था।
औद्योगिक मजदूरों में आॅपनिवेषिक शोषण के खिलाफ किसी चिन्ता का नहीं होने का यही कारण बतलाया जाता रहा। प्रारंभ में पष्चिमी युरोप, विषेष कर ब्रिटेन के मजदूरों का जीवन स्तर उपनिवेषों की लूट से तेजी से ऊँचा हुआ था और उनके लिए क्रान्तिकारी बनने की कोई मजबूरी नहीं थी। स्वयं फ्रेडरिक एंगेल्स ने मजदूरों में, विषेष कर ब्रिटेन के मजदूरों में जिनसे उनका सीधा संबंध था इस रूझान को देखा था। अपने जीवन के अन्तिम काल में अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा था कि उपनिवेषों की लूट में साझीदार बनने से इंग्लैंड के मजदूर आन्दोलन की क्रान्तिकारिता खतम हो गयी है और यहाँ पर मजदूर नेता सोषलिस्ट के बजाय पूँजीवादी उदारवादी होते जा रहे हैं।
लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से जब पहले के गुलाम मुल्क आजाद होने लगे इस शोषण का चरित्र आन्तरिक औपनिवेषिक हो गया। जैसे जैसे ये आजाद मुल्क औद्योगीकरण के पष्चिमी ढ़ाँचे को अपनाने लगे वृह्द पैमाने पर आंतरिक औपनिवेषिकरण का अध्याय शुरू हुआ। औद्योगीकरण के इस दौर में कुछ क्षेत्रों ओर नगरों का विकास देष देष के बाकी हिस्सों, विषेष कर ग्रामीण एवं जनजातीय बहुल वन प्रदेषों के घोर शोषण के आधार पर होने लगा। इन तथाकथित विकासषील देषों में अपने ही कृषकों और वनवासियों का विस्थापन और शोषण विकास के हवन कुंड का हवि बन गया।
आज अगर हम नये तरह के औद्योगिक प्रतिष्ठानों पर नजर डालें तो इनमें समेकित रूप से औपनिवेषिक लूट की प्रक्रिया प्रतिबिम्बित होती है। इनकी सश्ी बड़ी इकाइयों में उजड़ते आदिवासी गाँवों के वनोपज और खनिज, आत्म हत्या के कगार पर खड़े कृषकों की श्ूमि की उपज विविध यातायातों से लाये जाते और परिवर्तित हो जिन्सों का अंबार लगाते हैं और वहाँ से संसार श्र के बाजारों पर छा जाते हैं। हर बड़ा कारखाना और उससे लाशन्वित होने वाले कार्मिक प्राकृतिक संपदा की लूट के हिस्सेदार बन जाते हैं। अपने वैष्विक ताने बाने के साथ हर अत्याधुनिक औद्योगिक इकाई संपूर्ण शोषण व्यवस्था का लघु प्रारूप है। यह मूल कारण है जिससे औद्योगिक मजदूरों में इस व्यवस्था को बदल डालने कोई इरादा दिखाई नहीं देता। एन्गेल्स ने क्रान्तिकारिता के जिस ह्नास का जिक्र उन्नीसवीं सदी के अंत के ब्रिटेन के संदशर्् में किया था वह तो संसार के हर कोने में, जहाँ अत्याधुनिक औद्योगिक प्रतिष्ठान हैं, देखा जा सकता है। औद्योगिक मजदूरों और कर्मचारियों की माँग संसार श्र की प्राकृतिक संपदा की लूट से पैदा वैश्व में हिस्सेदारी में सिमट गयी है - जो ऊँचे वेतन, स्वास्थ्य सेवाओं और दूसरी सुविधाओं तक सिमट गयी हैं। ब्रिटेन में औद्योगीकरण के प्रारेंश्कि दिनों के लुडाइट विद्रोह को छोड़ औद्योगिक श्रमिकों में इस व्यवस्था के खिलाफ कोई विद्रोह नहीं हुआ। अगर हम दुनिया पर नजर डालें तो पायेंगे कि सभी जगत इस व्यवस्था को कबूल किया जा रहा है और मजदूर वर्ग भी व्यावसायिक लाभ के लिए विकसित इन सुविधाओं में हिस्सेदारी की ही मांग करता है। एक तरह से औद्योगिक मजदूर भी सेसार की प्राकृतिक संपदा और जमीन से जुड़े जनो की लूट में हिस्सेदार बन गये हैं।
यही मूल कारण है औद्योगिक मजदूरों और उन पर आधारित सोषलिस्ट एवं कम्युनिष्ट आॅन्दोलनो क्रान्तिकारिता के अभाव का। जब प्रथम विष्वयुद्ध के बाद औद्योगिक दृष्टि से विकसित पष्चिमी युरोप की बजाय क्रान्ति रुस में हुई तो यह कहा जाने लगा कि पूंजीवाद अपनी सब से कमजोर कड़ी पर टुटा है। इसके बाद जो भी क्रान्तियां कम्युनिस्ट नेतृत्व में हुई वे चीन, वीयतनाम आदि पिछड़े अर्थ व्यवस्थाओं में। स्पष्ट है कि इन क्रान्तियों का गन्तव्य वही नहीं था जो कम्युनिस्ट आंदोलन द्वारा इंगित था और न इसके पीछे औद्योगिक मजदूरों की क्रान्तिकारिता थी। ये क्रान्तियां उसे पूजीवादी आॅपनिवेषिक शोषण के खिलाफ थीं जो पष्चिमी देषों के औद्योगिक विकास का आधार था। इन देषों में पष्चिमी देषों का शोषण खतम हो गया है पर उसकी जगह औद्योगिक विकास के लिए जल, जंगल, जमीन और उनपर आश्रित जनो का शोषण आन्तरिक उपनिवेष बना तो रहा है। चीन, भारत और हाल के दिनों में विदेषी बंधन से मुक्त वर्तमान औद्योगिक विकास की दौड़ में शामिल हुए सभी देषों में यही हो रहा है। अफ्रिका में, जहां भीतरी पूंजीवादी वर्ग का विकास कम हुआ है, पष्चिमी देषों के अलावा भारत चीन आदि सभी वहां की कृषि भूमि और खनिजों में हिस्सेदारी के लिए प्रतिस्पर्धा में संलग्न है। पष्चिमी वर्चस्व से मुक्त हुए अधिकांष देष युरोप और अमेरिका की तर्ज पर विकास में ही अपना भविष्य देखते हैं। अमेरिका के पड़ोस के लातिनी अमेरिका के देषों में - जहां स्पेन के खिलाफ संघर्ष की बोलिवार की प्रेरणा से मुक्ति की छटपटाहट रही है और क्युबा की क्रान्ति से एक नयी दिषा का आभास मिला है- व्यवस्था के नये प्रयोगों का रुझाान जरुर दिखाई देता है। लेकिन ये पिछड़े औद्योगिक देष हैं।
पष्चिमी युरोप के सर्वाधिक विकसित देषों में जहां औद्योगिक मजदूर बहुसंख्य है, प्रथम विष्वयुद्ध के बाद कम्युनिस्ट और सोषलिस्ट पार्टियों को फासीवाद के उभाड़ का सामना करना पड़ा। जर्मनी अैार इटली में फासीवाद हावी हुआ। स्पेन में फासीवाद के मुकाबले सोषलिस्ट और कम्युनिस्ट खड़े हुए लेकिन इटली और जर्मनी के फासीवादी हुकूमक के सर्मथन से फ्रैंको की सत्ता बनी रही। द्वितीय विष्वयुद्ध में जर्मनी और इसके सहयोगी धुरी राष्ट्र्ों की पराजय से फासीवाद का उभार तो रुका और अल्प काल के लिए ब्रिटेन जर्मनी आदि में सोषल डेमोक्रैटिक पार्टियाँ वर्चस्व में आयी और मजदूर वर्ग को कुछ राहत मिली। लेकिन यह वर्चस्व अल्पकालिक रहा। ब्रिटेन में मार्गेरेट थाचर के आक्रामक हमले और जर्मनी में एंजेला मर्केल के प्रभाव में फिर दक्षिणपंथी पार्टियां हावी हो गयी। मजदूर बहुल इन देषों में दक्षिण पंथ की वापसी में मजदूर वर्गो की आस्था का संकट स्पष्ट है। वे भी दुनियां की पूजीवादी लूट में अपने यहां के औद्योगिक प्रतिष्ठानो से अपने को जोड़ते दिखाई देते हैं। सोषल डेमोक्रैटिक पार्टियों की तरह ही कम्युनिस्ट पार्टियां भी अधिकांष देषों में हाषिये पर डाल दी गयी है। स्वयं भारत में कम्युनिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी माक्र्सवादी और नक्सली कही जाने वाली माक्र्सवादी-लेनिनवादी पार्टिया सभी लगातार देष की राजनीति में अपनी हैसियत गँवा रही है।
नक्सलियों का एक समूह जिन्हें माओवादी कहा जाता है हथियार के बल सत्ता पाने की नीति को लेकर चल रहा है और देष के कुछ हिस्सों में इसकी जड़ें हैं। लेकिन ये ऐसे प्रदेष हैं जो वनों से घिरे हैं और उन्हें उन जनजातीय समूहों का समर्थन मिलता है जिन के अस्तित्व पर वर्तमान औद्योगिक विकास से सीधा खतरा है। जिन के परिवेष जंगलों की कटाई और खनन उद्योगों से लगातार नष्ट किये जा रहे हैं। विडम्बना यह है कि अपने को माओवादी कहने वाले ये समूह श्ी उन्हीं औद्य़ोगिक नीतियों के पैरोकार हैं जिनसे जनजातीय लोगों के परिवेष उजड़ रहे हैं एवं कृषि क्षेत्र प्रतिकूल दबाव पर रहा है। नेपाल की माओवादी पार्टी, जिससे इस समूह का शुरू में गहरा रिष्ता था औद्योगीकरण की उसी नीति का समर्थक है जिसे चीन समेत दुनिया की सश्ी पूँजीवादी व्यवस्थाएँ अपनाती रहीं हैं। ऐसी नीति के क्या नतीजे होंगे उन्हें दुनिया श्र के औद्योगिक विकास के परिणामों पर गौर करने पर आसानी से देखा जा सकता है। अगर परिस्थिति के किसी चमत्कार से शरत में माओवादी सत्ता में आये तो अंततः वे वैसी ही पूँजीवादी व्यवस्था को जन्म देंगे जैसी माओ के अपने देष में कम्युनिस्ट पार्टी के अधिनाकत्व में विकसित हुई है।
इन अनुश्वों से लगता है कि जल, जंगल और जमीन की रक्षा की सार्थक और स्थायी नीति वही हो सकती है जो विकास की ऐसी अवधारणा पर आधारित हो जो धरती और जीव जगत से मनुष्य के स्वाशविक साहचर्य को रेखांकित करती है। आधुनिक औद्योगीकरण के पहले कुछ तात्कालिक विचलनों के बावजूद मानव जीवन प्रकृति के साथ ताल-मेल पर आधारित था। पेड़, पशु, पर्वत, नदियों और सागर की पूजा श्ले ही विज्ञान की दृष्टि से अंधविष्वास लगे एक गहरे अर्थ में धरती पर जीवन में व्याप्त अंतरंग संगीत की ध्वनियाँ हैं। वहीं विकास साष्वत और सार्थक हो सकता है जो जीवन के इस राग से बँधा हो।
समता संगठन ने - जिस उस पहल की शुरूआत की थी जिससे समाजवादी जन परिषद अस्तित्व में आयी - अपने नीति वक्तव्य में 1980 में ही इस तथ्य को रेखांकित किया था कि समान प्राद्योगिकी पर आधारित पूँजीवादी ओर सोवियत व्यवस्थाएँ एक ही बिन्दु पर आ रही हैं। 1990 आते-आते सोवियत युनियन का विघटन हो गया और रूस वैष्विक पूँजीवाद का अंग बन गया। चीनी साम्यवाद का श्ी वही हस्र हुआ। ये घटनाएँ हमें आष्वस्त करती हैं कि विकास संबंधी हमारा आकलन सही साबित हुआ है। यह विडम्बना ही है कि मौजूदा तकनीकी के कुछ परिणामों के चकाचैंध से लोग अश्ी श्ी इस विकास के प्रलयंकारी पहलू को नजर अंदाज कर रहे हैं। लेकिन जल्दी ही लोगों का मोह श्ंग होगा और गगनचुंबी इमारतें जिनके जंगल चारों ओर उश्र रहे हैं ऊर्जा संकट से खंडहरों में तब्दील हो जायेंगी। अनिवार्य बिजली संकट से लिफ्टों के बंद होने पर इन बीस मंजिली या सौ मंजिली इमारतों में चमगादड़ों के सिवा किनका बसेरा होगा? ऊर्जा स्रोतों की उत्तरोत्तर बढ़ती मँहगाई इस बात का संकेत है कि ये स्रोत तेजी से सूख रहे हैं। नयी स्थितियों में वे ही समाज सकुषल रहेंगे जो वैकल्पिक विकास पद्धति को अपना इस संकट से अपने को बचायेंगे; तात्कालिक चकाचैंध की जगह संयमित जीवन की ओर जायेंगे।
समाजवादी जन परिषद लोगों को विकास संबंधी प्रचलित श््रम से आगाह करती रहेगी। आज हमारा दायित्व उन लोगों के संघर्षों में शामिल होना है जो विकास के इस दानवी दौड़ में रौंदे जा रहे हैं। हमारे साथी उड़ीसा, मध्य प्रदेष आदि में उनके अहिंसक संघर्षों में अपनी सीमित शक्ति से शामिल है। हमें अपने ऐसे संघर्षों का दायरा बढ़ाते जाना है। आज लोग श्ले ही हमारी बात नहीं सुने आने वाली संकट की घड़ी में उन्हें हमारी बातों पर ध्यान देना ही होगा। इसी विष्वास के साथ हमें आगे बढ़ते रहना है।


Photos
SJP National Conference Varanasi 11-12 June
courtesy of Chandra Bhushan Choudhary

समाजवादी जनपरिषद ,राष्ट्रीय सम्मेलन,वाराणसी
courtesy of Aflatoon



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